Wednesday, July 13, 2011

धरती और सावन की बूंदे..

धरती से सावन की बूंदे मिलने जब भी आती है
उसकी शिकायत करती है कुछ अपना दर्द सुनाती है

कुछ रिश्ते नये बनाती एहसास नया दे जाती है
हर एक कली को फूल बाग को गुलशन कर जाती है

चाहत नयी सी होती है अरमान नया दे जाती है
कुछ खुशी के पल कुछ मुस्कान नयी दे जाती है

धरती से सावन की बूंदे मिलने जब भी आती है
उसकी शिकायत करती है कुछ अपना दर्द सुनती है

सूखे खेतो से जब सौंधी सी खुश्बू आती है
सुनी आँखो मे फिर से एक ख्वाब नया दे जाती है

कही प्यार नया होता है कही जुदाई दे जाती है
कही सावन के झूले कही बिरहा के गीत सुनाती है

धरती से सावन की बूंदे मिलने जब भी आती है
उसकी शिकायत करती है कुछ अपना दर्द सुनती है

Sunday, February 6, 2011

मिथिला में शरद



औ' शरत्, अभी क्या गम है? 
तू ही वसन्त से क्या कम है?
है बिछी दूर तक दूब हरी,
हरियाली ओढ़े लता खड़ी।
कासों के हिलते श्वेत फूल,
फूली छतरी ताने बबूल;
अब भी लजवन्ती झीनी है,
मन्जरी बेर रस-भीनी है।


कोयल न (रात वह भी कूकी,
तुझपर रीझी, बंसी फूँकी।)
कोयल न, कीर तो बोले हैं,
कुररी-मैना रस घोले हैं।
कवियों की उपम की आँखें;
खंजन फड़काती है पाँखें।


रजनी बरसाती ओस ढेर,
देती भू पर मोती बिखेर;
नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग;
तू शरत् न, शुचिता का सुहाग।


औ' शरत्-गंग! लेखनी, आह!
शुचिता का यह निर्मल प्रवाह;
पल-भर निमग्न इसमें हो ले,
वरदान माँग, किल्वष धो ले।


-रामधारी सिंह दिनकर

Friday, December 3, 2010

तुम तूफान समझ पाओगे ?


गीले बादल, पीले रजकण,
सूखे पत्ते, रूखे तृण घन
लेकर चलता करता 'हरहर'--इसका गान समझ पाओगे?
तुम तूफान समझ पाओगे ?
गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?
तुम तूफान समझ पाओगे ?

तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ,
नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,
जाता है अज्ञात दिशा को ! हटो विहंगम, उड़ जाओगे !
तुम तूफान समझ पाओगे ?

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हरिवंशराय बच्चन

Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस की पुकार



पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, रावी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है, डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें

Monday, June 28, 2010

बदरा पानी दे !


गोरी-गोरी सौंधी धरती-कारे-कारे बीज
बदरा पानी दे !

क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत
बोने वालो ! नई फसल में बोओगे क्या चीज ?
बदरा पानी दे !

मैं बोऊंगा बीर बहूटी, इन्द्रधनुष सतरंग
नये सितारे, नयी पीढियाँ, नये धान का रंग
बदरा पानी दे !

हम बोएंगे हरी चुनरियाँ, कजरी, मेहँदी -
राखी के कुछ सूत और सावन की पहली तीज !
बदरा पानी दे !

>>
धर्मवीर भार
ती

Thursday, April 1, 2010

पुष्प की अभिलाषा



चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ चाह नहीं, देवों के शिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ! मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।



माखनलाल चतुर्वेदी

यह कदंब का पेड़


यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।


सुभद्राकुमारी चौहान