औ' शरत्, अभी क्या गम है?
तू ही वसन्त से क्या कम है?
है बिछी दूर तक दूब हरी,
हरियाली ओढ़े लता खड़ी।
कासों के हिलते श्वेत फूल,
फूली छतरी ताने बबूल;
अब भी लजवन्ती झीनी है,
मन्जरी बेर रस-भीनी है।
कोयल न (रात वह भी कूकी,
तुझपर रीझी, बंसी फूँकी।)
कोयल न, कीर तो बोले हैं,
कुररी-मैना रस घोले हैं।
कवियों की उपम की आँखें;
खंजन फड़काती है पाँखें।
रजनी बरसाती ओस ढेर,
देती भू पर मोती बिखेर;
नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग;
तू शरत् न, शुचिता का सुहाग।
औ' शरत्-गंग! लेखनी, आह!
शुचिता का यह निर्मल प्रवाह;
पल-भर निमग्न इसमें हो ले,
वरदान माँग, किल्वष धो ले।
-रामधारी सिंह दिनकर